सबसे बड़ी चुनौती: क्या पुलिस का DNA बदल पाएगी योगी सरकार ?
(09 अप्रैल 2017)
गोरखनाथ पीठ के महंत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने अब यदि सबसे बड़ी चुनौती कोई है तो वह है राज्य पुलिस की उसके DNA से निर्मित छवि को बदलना। वह छवि जो स्वतंत्र भारत में भी ठीक वैसी ही है, जैसी स्वतंत्रता से 86 साल पहले उसके गठन के समय थी।
पुलिस की छवि को लेकर कोई “अपवाद” भी नहीं है। पुलिस का चरित्र देशभर में कमोबेश एक जैसा है। फिर चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार, राजस्थान हो या मध्यप्रदेश, उत्तराखंड हो या पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर हो अथवा तमिलनाडु, दिल्ली हो या दूसरे केंद्र शासित प्रदेश।
कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक पुलिस के समान आचार-व्यवहार एवं चाल-चरित्र का कारण जानने से पहले उसका DNA जानना जरूरी है।
दरअसल, 1861 में बने पुलिस अधिनियम के मुताबिक ही देश के अधिकांश राज्यों की पुलिस आज भी काम कर रही है। फिरंगियों ने ये अधिनियम आम जनता का दमन करने के लिए ही बनाया था। 1857 के विद्रोह की किसी भी सूरत में पुनरावृत्ति न हो इसलिए खाकी को ऐसे खौफ से सुसज्जित किया गया जिसके सामने कोई सिर उठाने की जुर्रत न कर पाए।
1947 में देश स्वतंत्र हो गया लेकिन पुलिस अधिनियम जस का तस बना रहा। यानि उसके DNA में कोई बदलाव नहीं हुआ। यह DNA ही पुलिस को आम पब्लिक का दमन करने के लिए प्रेरित करता था इसलिए वह आज तक वही कर रही है।
कुछ राज्यों ने नए अधिनियम बनाकर पुलिस को संचालित करने की कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हुए क्योंकि उनके नए अधिनयम, पुराने अधिनियम से बहुत अलग नहीं थे।
करीब 243286 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले और 2011 की जनगणना के मुताबिक लगभग 20 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश को न केवल देश, बल्कि पूरी दुनिया के लिए सबसे बड़ा एकल पुलिस बल होने का गौरव प्राप्त है।
उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक कहने को तो 75 जिलों में 33 सशस्त्र बटालियनों, खुफिया, जांच, भ्रष्टाचार निरोधी, तकनीकी, प्रशिक्षण, अपराध विज्ञान इत्यादि से संबन्धित विशेषज्ञ प्रकोष्ठ/शाखाओं में फैले करीब 2.5 लाख कर्मियों की कमान संभालते हैं किंतु हकीकत यह है कि अनुशासन के लिए पहचाना जाने वाला पुलिस बल अब अधिकारियों के नियंत्रण से बाहर होता जा रहा है।
जरूरत से ज्यादा राजनीतिक दखल, भ्रष्टाचार, जातिवाद और अनुशासनहीनता के चलते पुलिस किस कदर निरंकुश हो चुकी है इसका अंदाज वर्तमान डीजीपी जावीद अहमद के कथन से लगाया जा सकता है।
प्रदेश पुलिस के मुखिया ने कल ही यह स्वीकारा है कि पुलिस में काफी लोगों की अपराधियों से सांठगांठ है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश अर्थात मेरठ, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, नोएडा, मथुरा, आगरा आदि में उन्होंने ऐसे पुलिसकर्मियों की भरमार बताई है जो अपराधियों से मिले हुए हैं। योगी सरकार की सख्ती को देखते हुए हालांकि उन्होंने ऐसे पुलिसजनों की सूची तैयार कर उनके खिलाफ कठोर कार्यवाही करने की बात कही है किंतु यह काम इतना आसान नहीं है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा पिछले तीन दिनों से लगातार लगाए जा रहे जनता दरबार में सर्वाधिक शिकायतें पुलिस को लेकर ही आई हैं। ये शिकायतें बता रही हैं कि हत्या, अपहरण, लूट, बलात्कार, डकैती, ड्रग्स की तस्करी तथा जमीनों पर कब्जे जैसी संगीन आपराधिक वारदातों में पुलिस ने न केवल अपराधियों को संरक्षण दिया बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सक्रिय भूमिका भी निभाई।
स्वतंत्रता के 69 सालों बाद पुलिस की छवि सुधरने की बजाय दिन-प्रतिदिन वीभत्स होते जाने का एक अन्य प्रमुख कारण उसकी वह “थ्योरी” भी है जिसे कांटे से कांटा निकालने का नाम दिया जाता है।
पिछले ढाई दशक में पुलिस ने इस थ्योरी को जैसे आत्मसात कर लिया है अन्यथा इससे पूर्व पुलिस अपराधियों की धर-पकड़ के लिए मुखबिरों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करती थी। मुखबिर भी इसके लिए पुलिस से आर्थिक व सामाजिक संरक्षण प्राप्त करते थे।
कांटे से कांटा निकालने की थ्योरी के तहत पुलिस ने मुखबिरों की जगह बदमाशों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। एक बदमाश की पीठ पर हाथ रखकर वह या तो खुद उससे दूसरे बदमाश को मरवाने लगी या फिर उसके कंधे पर बंदूक रखकर चलाने लगी। पुलिस की इस थ्योरी पर चलने का परिणाम यह हुआ कि उसके कुख्यात अपराधियों से संबंध प्रगाढ़ होते गए। रही-सही कसर अपराधियों के राजनीतिककरण ने पूरी कर दी। सत्ता के साथ पुलिस की निष्ठा जुड़ गई और फिर यही निष्ठा सत्ता पर काबिज होने वाले जाति विशेष के लोगों से जुड़ने लगी। देखते-देखते पुलिस बल जातिगत खांचों में बंट गया। सत्ता बदलने के साथ पुलिसजनों की नेमप्लेट पर जाति को प्रमुखता से दर्शाने का जैसे रिवाज चल पड़ा।
सत्ता के गलियारों तक अदना से अदना पुलिसकर्मी की पहुंच ने उसके मन से अधिकारियों का भय दूर कर दिया और अधिकारी भी यह सोचने पर मजबूर हो गए कि पता नहीं कौन कब उनके ऊपर भारी पड़ जाए। उच्चाधिकारियों की बात तो दूर थाने तथा चौकियों पर भी तैनाती सीधे ऊपर से होने लगी और अधिकारी सिर्फ कागजी घोड़े बनकर रह गए।
पुलिस के पहले से दोषयुक्त DNA में अनुशासनहीनता की इस मिलावट ने हालात कुछ ऐसे बना दिए कि वह अपने सूत्र वाक्य ‘परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम’ से पूरी तरह भटक गई।
गीता जैसे धार्मिक ग्रंथ के एक श्लोक से लिए गए इस सूत्र वाक्य में निहित “सज्जन व्यक्तियों की रक्षा और दुष्टों का नाश”, पुलिस के लिए सिर्फ थाने-चौकियों की दीवारों पर उकेरने भर के लिए रह गया।
सच तो यह है कि पुलिस का आचरण समय के साथ अपने सूत्र वाक्य से ठीक उलट दिखाई देने लगा लिहाजा सज्जन व्यक्ति पुलिस से जबर्दस्त खौफ खाने लगे और दुष्टजन उनके सहोदर बन बैठे।
पिछले कुछ समय से तो आलम ऐसा हो गया है कि पुलिस किसी सज्जन व्यक्ति को इज्ज़त देना जानती ही नहीं, यदि देनी भी पड़े तो पता नहीं रहता कि वह कितनी देर उसकी इज्ज़त अफजाई करेगी। किसी को भी अश्लील गालियां देना, चाहे जब मारपीट शुरू कर देना और विरोध करने पर बंद कर देने की धमकी देना तो एक तरह से पुलिस के चिर-परिचित हथकंडे बन गए हैं। पुलिस न किसी सीनियर सिटीजन को इज्ज़त बख्शना जानती है और न महिला व बच्चों को। कानून उसके लिए एक ऐसा हथियार बन गया है जिसे वह अपनी सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल करती है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपनी चुनावी रैलियों में कानून का राज स्थापित करने की बात पुरजोर कही थी और कानून-व्यवस्था की बदहाली को ही एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि योगी सरकार आमजन के साथ-साथ पुलिस से भी कानून-व्यवस्था का अनुपालन कराने में सफल हो गई तो आधी से अधिक समस्याओं का समाधान बिना किसी हस्तक्षेप के हो जाएगा।
अपराधों में पुलिस की संलिप्तता, अपराधियों से उसकी मिलीभगत और उससे उपजी अव्यवस्था यदि काबू में आ गई तो न जमीन से जुड़े अपराध होंगे और न लूट, डकैती, हत्या, बलात्कार आदि संगीन अपराधों के पीड़ित दर-दर की ठोकरें खाएंगे।
लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि क्या पुलिस के मूल चरित्र को बदलना इतना आसान है ?
यह सवाल ही वह चुनौती है जो स्वतंत्रता के बाद से अब तक हर सरकार के सामने खड़ी है और जिसे पूरा करने की कवायद में तमाम सरकारें चली गईं।
अब पहली बार एक गेरूआ वस्त्रधारी और महंत की उपाधि से विभूषित योगी को राजपाठ की कमान मिली है तो आमजन की उम्मीदों को भी पंख लगे हैं। वह पुलिस से साधुता की तो नहीं, लेकिन व्यावहारिकता की आस अवश्य लगा रही है। यदि योगी का राज आमजन की इस उम्मीद पर खरा उतरता है तो नि:संदेह उत्तर प्रदेश, उत्तम प्रदेश में तब्दील होता नजर आएगा और इसी प्रकार 2022 में भी योगी की जय-जयकार होगी।
करीब ढाई साल बाद… आज के संदर्भ में
आज जबकि योगी सरकार अपने कार्यकाल का लगभग आधा समय पूरा कर चुकी है, तब देखने में आ रहा है कि पुलिस की कार्यशैली यथावत है। उसमें आमूल-चूल परिवर्तन होना तो दूर, आंशिक परिवर्तन भी नजर नहीं आता।
हालांकि सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ खुद पुलिस की उसकी वर्तमान छवि से बाहर निकालने का संकेत दे रहे हैं परंतु सरकार की कार्यशैली देखकर नहीं लगता कि वह इस मामले में गंभीर है।
कालपी के मंगरौल में कल पुलिस ट्रेनिंग स्कूल का उद्घाटन करते हुए योगी आदित्यनाथ ने वही सारी बातें कहीं जो हम 09 अप्रैल 2017 को ही लिख चुके हैं।
मसलन… ब्रिटिश शासन खत्म होने के बाद विरासत में देश को पुलिस की जो छवि मिली, उसे बदलने की जरूरत है।
इसके लिए योगी आदित्यनाथ ने पुलिस को ऐसे नए नजरिए से ट्रेनिंग देने की बात पर बल दिया जिससे पुलिस अपराधियों को दुश्मन लेकिन आमजन को उसकी दोस्त लगे।
योगी आदित्यनाथ का कहना सही है, परंतु सवाल यह है कि ये होगा कैसे ?
अपनी सरकार के शुरूआती कुछ महीनों में योगी आदित्यनाथ ने जरूर ऐसा माहौल क्रिएट किया था जिससे लगने लगा था कि शायद उत्तर प्रदेश अब भयमुक्त व अपराध मुक्त होने की दिशा में बढ़ सकता है, परंतु बाद में उन्होंने उसी नित-नए ट्रांसफर-पोस्टिंग की ढर्रेवाली कार्यशैली अपना ली जो उनसे पहले वाली मुलायम, माया तथा अखिलेश के नेतृत्व वाली सरकारों ने अपना रखी थी। नतीजा सामने है।
अब स्थिति यह है कि ताश के पत्तों की तरह अधिकारी “फेंटे” तो जा रहे हैं परंतु वह “फिट” नहीं बैठ पा रहे क्योंकि भ्रष्ट व निकम्मे अधिकारी लगातार अच्छी पोस्टिंग पा रहे हैं।
आगरा मंडल का उदाहरण सामने है
यदि आगरा मंडल का ही उदाहरण लें तो मात्र दो महीने के अंदर हुए जघन्य अपराधों ने आम आदमी को हिलाकर रख दिया है।
आश्चर्य की बात यह है कि मंडल में तमाम जघन्य अपराध होने के बावजूद किसी उच्च अधिकारी को उनके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया जबकि वो उसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार रहे हैं।
यहां एक बात और ऐसी है, जो परेशान करती है। वह बात यह है कि किसी भी जिले की कानून-व्यवस्था के लिए अंतिम रूप से वहां का जिलाधिकारी जिम्मेदार होता है परंतु एक लंबे समय से देखा जा रहा है कि कानून-व्यवस्था के मामले में किसी जिलाधिकारी को तभी कठघरे में किया जाता है जब कोई सांप्रदायिक उपद्रव या दंगे जैसी घटना होती है अन्यथा पुलिस को ही जवाबदेह मानकर लीपापोती कर दी जाती है।
यही कारण है कि अधिकांश जिलाधिकारी कानून-व्यवस्था को बनाए रखने में कोई रुचि नहीं लेते। उनकी रुचि सिर्फ प्रशासनिक व्यवस्थाओं तक सीमित रहती है। जिन जिलों में जिलाधिकारी कानून-व्यवस्था को लेकर संवेदनशील होते हैं, वहां पुलिस के मुखिया व उनके बीच टकराव की नौबत आ जाती है।
कुल मिलाकर यह नहीं कहा जा सकता है कि अब तक पुलिस व प्रशासन को “योगीराज” ऐसा कोई संदेश देने में सफल रहा है जिससे कानून का इकबाल बुलंद हो सके और यह कहा जा सके कि उत्तर प्रदेश 2022 के चुनावों से पहले उत्तम प्रदेश बनने की दिशा में एक कदम बढ़ चुका है।
अपराधों को दर्ज न करके आंकड़ों की बाजीगरी का खेल दिखाकर कोई भी सरकार अपनी पीठ बेशक थपाथपा सकती है किंतु सार्थक परिणाम नहीं दे सकती।
यह बात योगी आदित्यनाथ के साथ-साथ भाजपा के पदाधिकारियों को भी समझनी होगी अन्यथा माया और अखिलेश की पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकारों का “हश्र” सामने है।
ढाई साल बीत चुके हैं, ढाई साल बाकी हैं। आधा गिलास भरा है, लेकिन आधा खाली हो चुका है। बात अब नज़रिए पर आकर टिक जाती है।
देखना होगा कि योगी आदित्यनाथ कौन सा नज़रिया अपनाते हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी